
ये 1957 की बात है जब 14 साल के वीरू देवगन बॉलीवुड में घुसने की हसरत लिए अमृतसर में अपने घर से भाग गए थे. बिना टिकट लिए फ्रंटियर मेल पकड़ ली. बंबई जाने के लिए. लेकिन टिकट ली नहीं थी, तो दोस्तों के साथ हफ्ते भर जेल में रहना पड़ा.
बाहर निकले तो बंबई शहर और भूख ने उनको तोड़ दिया. जहां उनके साथ आए कुछ दोस्त टूटकर अमृतसर लौट गए. वीरू नहीं गए. वे टैक्सियां साफ करने लगे. कारपेंटर का काम करने लगे. कुछ हौसला लौटा तो फिल्म स्टूडियोज़ के चक्कर निकालने लगे. उन्हें एक्टर बनना था. लेकिन उन्हें जल्द ही समझ आ गया कि हिंदी फिल्मों में जो चॉकलेटी चेहरे एक्टर और स्टार बने हुए हैं, उनके सामने उनका कोई चांस नहीं है.
वीरू ख़ुद बताते थे –
”जब मैंने आइने में अपना चेहरा देखा तो दूसरे स्ट्रगलर्स के मुकाबले खुद को बहुत कमतर महसूस किया. इसलिए मैंने हार मान ली. लेकिन मैंने प्रण लिया कि मेरा पहला बेटा एक हीरो बनेगा.”
वीरू ने अपने बेटे अजय को हीरो बनाने के लिए बहुत मेहनत की. उन्हें कम उम्र से ही फिल्ममेकिंग, एक्शन वगैरह से जोड़ा. तब से ही ये सब अजय के हाथों से करवाते थे. कॉलेज गए तो उनके लिए डांस क्लासेज शुरू करवाईं. घर में जिम बनावाया. उर्दू की क्लास लगवाई. हॉर्स राइडिंग वगैरह सब करवाया. फिर उन्हें अपनी फिल्मों की एक्शन टीम का हिस्सा बनाने लगे. उन्हें सिखाने लगे कि सेट का माहौल कैसा होता है. अजय फिल्ममेकिंग को लेकर इस वजह से बहुत सक्षम हो गए.
अजय तब कॉलेज की पढ़ाई कर रहे थे और पार्ट-टाइम शेखर कपूर को उनकी फिल्म ‘दुश्मनी’ में असिस्ट कर रहे थे. तब तक अजय ने फिल्मों में आने को लेकर कोई निर्णय नहीं लिया था. एक शाम वे घर लौटे तो डायरेक्टर संदेश/कूकू कोहली उनके पिता वीरू देवगन के साथ बैठे थे. वीरू ने कहा कि संदेश ‘फूल और कांटे’ नाम से एक फिल्म बना रहे हैं और तुम्हे इसमें लेना चाहते हैं. इस पर अजय की पहली प्रतिक्रिया थी, ”आप पागल हो क्या? अभी मैं सिर्फ 18 साल का हूं और अपनी लाइफ एंजॉय कर रहा हूं.” अजय ने बिलकुल मना कर दिया और चले गए. ये अक्टूबर 1990 की बात थी. और अगले महीने नवंबर में वो उस फिल्म की शूटिंग कर रहे थे. उन्हें ये फिल्म मिली इसमें भी वीरू द्वारा करवाई इस तैयारी और उनका बेटा होने का रुतबा था, जो काम कर रहा था.